तराइन युद्ध
इस प्रकार पृथ्वीराज और मुइज्जुद्दीन मुहम्मद, दो महत्त्वाकांक्षी शासकों के बीच युद्ध अवश्यंभावी हो गया। संघर्ष तबरहिन्द (वर्तमान भटिंडा, पंजाब) पर दोनों के दावों को लेकर आरम्भ हुआ। तराइन में 1191 में जो युद्ध हुआ उसमें ग़ोरी सेना के पाँव उखड़ गए और स्वयं मुइज्जुद्दीन मुहम्मद की जान एक युवा ख़िलज़ी घुड़सवार ने बचाई। पृथ्वीराज अब भटिंडा की ओर मुड़ा और तेरह महीनों के घेरे के बाद उसे अपने क़ब्ज़े में कर लिया। लेकिन इसके बावजूद उसने पंजाब से ग़ोरियों को खदेड़ने का कोई प्रयास नहीं किया। शायद उसे ऐसा लगा हो कि तुर्कों के बार-बार हो रहे आक्रमणों में से यह भी एक हो और ग़ोरी शासक बस पंजाब पर शासन कर संतुष्ट रहें। बताया जाता है कि तराइन की दूसरी लड़ाई के पूर्व वह मुइज्जुद्दीन को दिए एक प्रस्ताव में पंजाब को मुइज्जुद्दीन के हाथों छोड़ने के लिए तैयार था।
तराइन की दूसरी लड़ाई
तराइन की दूसरी लड़ाई को भारतीय इतिहास का एक मोड़ माना जाता है। मुइज्जुद्दीन ने इसके लिए बहुत तैयारियाँ कीं। कहा जाता है कि वह 1,20,000 सैनिकों के साथ मैदान में उतरा जिसमें बड़ी संख्या में बख्तरबंद घुड़सवार और 10,000 धनुर्धारी घुड़सवार शामिल थे। यह सोचना उचित नहीं होगा कि पृथ्वीराज ने अपनी ओर से शासन में लापरवाही की या उसे स्थिति का अंदाजा तभी लग सका जब बहुत देर हो चुकी थी। यह सही है कि इस अंतिम अभियान का सेनाध्यक्ष, स्कंन्द, कहीं और फँसा था। जैसे ही पृथ्वीराज ने ग़ोरियों के ख़तरे को भाँपा, उसने उत्तर भारत के सभी राजाओं से सहायता का अनुरोध किया। बताया जाता है कि कई राजाओं ने उसकी मदद के लिए अपने सैनिक भेजे, लेकिन कन्नौज का शासक जयचंद्र चुप रहा। ऐसा कहा जाता है कि जयचन्द्र की पुत्री संयोगिता पृथ्वीराज से प्रेम करती थी और पृथ्वीराज उसे भगा लाया था। इसलिए जयचन्द्र चुप रहा। पर अब अनेक इतिहासकार इस कथन को स्वीकार नहीं करते। यह कहानी बहुत बाद में कवि चंदबरदाई ने लिखी (जो कि पृथ्वीराज चौहान के दरबार के राजकवि थे) और उसके वर्णन में कई एक असंभाव्य घटनाएँ हैं। यथार्थ में इन दोनों राज्यों के बीच पुरानी दुश्मनी थी और इस कारण कोई आश्चर्य की बात नहीं कि जयचन्द्र ने पृथ्वीराज का साथ नहीं दिया।
गौरी और पृथ्वीराज का युद्ध
किंवदंतियों के अनुसार गौरी ने 18 बार पृथ्वीराज पर आक्रमण किया था जिसमें 17 बार उसे पराजित होना पड़ा। किसी भी इतिहासकार को किंवदंतियों के आधार पर अपना मत बनाना कठिन होता है। इस विषय में इतना निश्चित है कि गौरी और पृथ्वीराज में कम से कम दो भीषण युद्ध आवश्यक हुए थे जिनमें प्रथम में पृथ्वीराज विजयी और दूसरे में पराजित हुआ था। वे दोनों युद्ध थानेश्वर के निकटवर्ती तराइन या तरावड़ी के मैदान में क्रमश स 1247 और 1248 में हुए थे।
महाराणा प्रताप और अकबर की सेना के बीच हल्दीघाटी का महायुद्ध 1576 ई. लड़ा गया| इस युद्ध में महाराणा प्रताप की सेना में सिर्फ 20000 सैनिक तथा अकबर की सेना के 85000 सैनिक थे| अकबर की विशाल सेना और संसाधनों की ताकत के बावजूद महाराणा प्रताप ने हार नहीं मानी और मातृभूमि के सम्मान के लिए संघर्ष करते रहे| हल्दीघाटी का युद्ध इतना भयंकर था कि युद्ध के 300 वर्षों बाद भी वहां पर तलवारें पायी गयी| आखिरी बार तलवारों का जखीरा 1985 को हल्दीघाटी में मिला था|